Sunday, November 8, 2009

माँ

कैसे मानू कि तुम नहीं हो ,
तुम मेरे ख्वाबों में हो ,
जब कभी होती हूँ उदास ,
लगता है पास आ कर सबब पूछती हो ,

कैसे मानू कि तुम नहीं हो ।
मेरी खुशी में खुश होना ,
मेरी रुलाई में दुखी होना ,
दिखाई नही देती फिर भी ,
देती हो अपना स्पर्श ,
मेरे से बातें करना ,
बातों का उत्तर देना
रात को नींद खुलने पर ,
अपना हाथ गालों पर लगा कर सहलाना ,
नहाने जाती हूँ तो कपड़े पकड़ाना ,
खाने बैठती हूँ तो खाना खिलाना ,
मेरे हंसने पर देती तो हल्की सी मुस्कान ,
गुमसुम होने पर हो जाती हो बेचैन ,
शीशे मैं जब देखती हूँ
प्रतिबिम्ब दिखता है तुम्हारा ,
कैसे
मानू कि तुम नहीं हो

- वंदना शर्मा

3 comments:

  1. didi!! tumhari kavita bhut achhi hai.
    kabhi mere ghar ana apni maa se milaoonga .woh bhi tumhari maa jesi hi hai .
    maataen to ek jaisi hoti hai. from : siddharth khanna

    ReplyDelete
  2. हेलो वंदना
    तुम्हारी कविता पढ़ी और ऐसा लगा मानो मैंने खुद ही लिखा हो. ऐसा क्यूं हुआ मुझे पता नहीं पर तुम्हीं जवाब दो तो कुछ बात बने. कहते हैं इंसान जब मिलते हैं तो परिचय करना भी याद नहीं रहता. तुम कौन हो? कम-से-कम बेगानी तो नहीं हो!

    ReplyDelete
  3. यो गुड वर्क बुआ

    ReplyDelete