Saturday, November 14, 2009

सीप हमेशा शंख में ही रहती है

सीप हमेशा शंख में ही रहती है,
वह उसे जीवन में आने नहीं देता,
आखिर क्यों?लहरों को महसूस नहीं कर पाती,
बाहर की दुनिया नहीं देख पाती,
आखिर क्यों?हवा महसूस नहीं कर पाती,
उजाले में नहीं सकती,
आखिर क्यों?

-वंदना शर्मा

बेटिआं

ओस की बूँद की तरह होती हैं बेटिआं,
माँ-बाप की आन होती हैं बेटिआं,
भाईओं की जान होती हैं बेटीआं,
गुलाब सी महकती हैं,
चिडीओं सी चहकती होती हैं बेटिआं,
हिमालय सी कठोर,रूई सी कोमल,होती हैं बेटिआं,
कभी बेटी,बहन,पत्नी,मां के,रिश्तों को निभाती हैं बेटिआं०
क्यों जन्म से पहले मरती है,
गर्भ में कई सपनें सजाती है,
क्यों भीं पर बिना कसूर,
मारी जाती हैं बेटिआं०
बेटा हो तो बड़ा होकर देता है जुदाई
,माँ-बाप को रोटी देती हैं बेटिआं०
उनके दर्द पर रोती हैं,
रौशन करेगा बेटा तो बस,
एक कुल को,
दो-दो कुलों की लाज को धोती हैं बेटिआं०

-वनादाना शर्मा

पवन से पूछा एक दिन मैंने

पवन से पूछा एक दिन मैंने ,
अपना रूप क्यों नहीं दिखाती,
क्यों सबसे हो अपना असितत्व छुपाती,
बहती रहती हो सर-सर,
तपिस में हमेशा ठंडक पहुंचाती,
बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं होती,
पवन मुस्कुराई,बोली,
देना ही है जिन्दगी,
मेरा कोई रूप नहीं रंग नहीं,
फिर भी मैं सबकी चहेती०


-वंदना शर्मा

ऐसा क्यों होता है

ऐसा क्यों होता है जैसा हम नहीं चाहते
किनारा सामने होता है,
मंजिल नहीं मिलती०
चांदनी का अपना असितत्व,क्यों नहीं होता,
तारे आकाश से अलग क्यों हो सकते०
नदी अकेली बहती है,
फिर भी एक दिन सागर
में,क्यों जाना पड़ता है०
वर्षा की अपनी पहचान नहीं,
बादलों के आने पर ही क्यों आती है
,ऐसा क्यों होता है,जैसा हम नहीं चह्ते०

-वंदना शर्मा

कभी हंसाते तो कभी रुलाते रिश्ते

कभी हंसाते तो कभी रुलाते रिश्ते,
जीने का सहारा तो कभी दर्द का समन्दर,
किस किस पड़ाव से गुजरते हैं.
कभी मखमली धूप से,
कभी फूलों से महकते गुलाब से रिश्ते,
खुसी देते हैं कभी गम,
जाने कितनी बार दर्द के साथ,
मुस्करा क्र चलते हैं यह रिश्ते,
कभी पतझड़ के मौसम में,
बसंत भर बन कर मन में,धाते हैं रिश्ते,
कभी वकत के साथ बदलते हैं,
कभी वकत बदल जाता है,
किधर रहते हैं रिश्ते.
कभी इतने कमज़ोर हो जाते हैं,
जोड़ने पर भी नहीं जुड़ते रिश्ते.
क्यों इनकी नींव इतनी कमजोर होती है?
अटूट विस्वास पर क्यों नहीं चलते यह रिश्ते!!

-वंदना शर्मा

Thursday, November 12, 2009

आखिर ये जिन्दगी है क्या?

कभी लगे सहेली
कभी बनती है पहेली
आखिर ये जिन्दगी है क्या?
कभी लगे पास, कभी दूर
होती है कभी हमारे साथ
कभी मिलने जाते हैं
देती नहीं साथ
आखिर ये जिन्दगी है क्या?
क्यों हमें तड़पाती
क्यों हो जाते हैं इसके
हाथों मजबूर


कभी देती है खुसिआं
कभी देती है गम
कभी हँसाए , कभी रुलाए
कभी तो यह अपना
असली रूप दिखाए !
आखिर ये जिन्दगी है क्या?

- वंदना शर्मा

Sunday, November 8, 2009

माँ

कैसे मानू कि तुम नहीं हो ,
तुम मेरे ख्वाबों में हो ,
जब कभी होती हूँ उदास ,
लगता है पास आ कर सबब पूछती हो ,

कैसे मानू कि तुम नहीं हो ।
मेरी खुशी में खुश होना ,
मेरी रुलाई में दुखी होना ,
दिखाई नही देती फिर भी ,
देती हो अपना स्पर्श ,
मेरे से बातें करना ,
बातों का उत्तर देना
रात को नींद खुलने पर ,
अपना हाथ गालों पर लगा कर सहलाना ,
नहाने जाती हूँ तो कपड़े पकड़ाना ,
खाने बैठती हूँ तो खाना खिलाना ,
मेरे हंसने पर देती तो हल्की सी मुस्कान ,
गुमसुम होने पर हो जाती हो बेचैन ,
शीशे मैं जब देखती हूँ
प्रतिबिम्ब दिखता है तुम्हारा ,
कैसे
मानू कि तुम नहीं हो

- वंदना शर्मा